MA 1st year political science syllabus, Criticism of the Directive Principles

 नीति-निर्देशक तत्त्वों की आलोचना (Criticism of the Directive Principles) 

की प्रारम्भ से ही नीति-निर्देशक तत्त्वों की तीव्र आलोचना की गयी है। विशेषकर संविधान सभा में आलोचकों ने इस व को बड़े आड़े हाथों लिया। अतः आलोचनाओं को यहाँ सूचीबद्ध करना श्रेयस्कर होगा। वैधिक अनुशक्ति का अभाव (Lack of Legal Sanction): नीति-निर्देशक तत्त्वों के विरुद्ध मुख्य आलोचना यह कि उनके पीछे शक्ति नहीं है। उन्हें लागू करने के लिए न्यायालय राज्य को बाध्य नहीं कर सकता है। अतः

आलोचकों की राय में 'शुभ इच्छाएँ' (Pious wishes), 'नैतिक उपदेश' (moral precepts) तथा ‘वे राजनीतिक घोषणाएँ हैं जिनका कोई संवैधानिक महत्त्व नहीं (Political manifesto devoid of any constitutional importance) है। संविधान सभा के सदस्य श्री नसीरुद्दीन ने उन्हें, 'नववर्ष के प्रथम दिन पास किये गये प्रस्ताव' (a set of new year's resolutions) कहा। प्रो० के० टी० शाह के शब्दों में, "यह एक ऐसा चेक है जिसका भुगतान बैंक की सुविधा पर छोड़ दिया गया है। डॉ० वीयर ने निर्देशक तत्त्वों को “उद्देश्यों और आकांक्षाओं की घोषणा मात्र" कहा है। सर बी. एन० राव के शब्दों में, "राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व अधिकारियों के लिए नैतिक उपदेशों के समान हैं और उनके विरुद्ध यह आलोचना की जाती है कि संविधान में नैतिक उपदेशों के लिए स्थान नहीं है।"20 श्री एन० आर० राघवाचारी का कहना है कि “इन सिद्धान्तों को व्यवहारिक राजनीति के स्थान पर राजनीतिक दर्शन कहा जा सकता है और व्यर्थ किन्तु वैभवपूर्ण शब्दावली में जुड़ी हुई उच्चतम कल्पनाओं की पंक्ति के अतिरिक्त एक वैधानिक आलोचक अथवा एक आलोचनात्मक वैज्ञानिक दृष्टि में इनका महत्त्व न्यून अथवा कुछ भी नहीं है।"21 वस्तुतः नीति-निर्देशक तत्त्वों जैसे नैतिक आदर्शों के लिए संविधान में कोई स्थान नहीं है। इस हालत में बाइबिल के 'दस उपदेशों' (Ten Commandments) को संविधान में स्थान दिया जा सकता है। अतः आलोचकों का यह कहना कि न्यायाविष्ट न होने के कारण सिद्धान्त अर्थहीन है, बहुत अतिशयोक्ति नहीं दीख पड़ता।

(ii) अस्पष्ट तथा अतार्तिक रूप से क्रमबद्ध (Vague and illogically Arranged ): 

डॉ० जेनिंग्स के अनुसार नीति-निर्देशक तत्त्व किसी निश्चित तथा संगतपूर्ण दर्शन पर आधारित नहीं है; वे अस्पष्ट हैं। उन्हें न तो उचित रूप से क्रमबद्ध ही किया गया है और न तार्किक ढंग से वर्गीकृत ही। एक ही बात बार-बार दुहरायी गयी है। स्मारकों का संरक्षण जैसी मामूली बात को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सामाजिक तथा आर्थिक प्रश्नों के साथ मिलाकर उलझन पैदा कर दी गयी है। प्रो० श्रीनिवासन के अनुसार “इसमें बेतुके ढंग से नये को पुराने से तथा तर्क एवं विज्ञान पर आधारित बातों को मनोभावों तथा संकीर्णता पर आधारित बातों से मिश्रित कर दिया गया 22

(iii) एक सार्वभौम राज्य में अप्राकृतिक (Unnatural in Sovereign State):

 एक सार्वभौम राज्य में इन सिद्धान्तों को अंगीकृत करना अप्राकृतिक दीख पड़ता है। उच्च सत्ता अधीनस्थ सत्ता को आदेश दे सकती है, लेकिन एक सार्वभौम राज्य को इस तरह का आदेश देने की आवश्यकता पड़े, यह अस्वाभाविक जान पड़ता है। प्रश्न उठता है, सार्वभौम सत्ता अपने आप को आदेशित क्यों करे? एक संवैधानिक आलोचक की दृष्टि में सार्वभौम सत्ता को इस प्रकार के आदेश का कोई औचित्य नहीं है।

(iv) अव्यवहारिक तथा अयुक्तिसंगत (Impractical and Unsound):

 आलोचकों का कहना है कि कोई निर्देशक तत्त्व व्यवहारिक तथा युक्तिसंगत नहीं है। उदाहरणस्वरूप, मद्य-निषेध (Prohibition) को अर्थशास्त्रियों ने देश के आर्थिक हित के विपरीत माना है। इस सुधार का देश की आर्थिक दशा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा राज्य-निधि को धक्का पहुँचता है। मद्यकर (Excise Duty) से संचित धनराशि को सार्वजनिक हित के लिये व्यय किया जा सकता है। इसके अलावा यह भी कहना गलत है कि मद्य-निषेध शराबियों को नैतिकवादी बना देगा। नैतिकता किसी पर भी जबरदस्ती नहीं लादी जा सकती है। कभी-कभी तो मद्य-निषेध गैर-कानूनी तरीके से शराब बनाने की तथा घूसखोरी को प्रोत्साहन देता है। 1

(v) सांविधानिक द्वन्द्व (Constitutional Conflict): 

संवैधानिक विधिवेत्ताओं के समक्ष कभी-कभी यह प्रश्न खड़ा होता है कि अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल, जो संविधान के संरक्षण की शपथ लेते हैं, किसी विधेयक को इस आधार पर स्वीकृति न दें कि वह नीति-निर्देशक तत्त्वों के प्रतिकूल है तो क्या होगा? कुछ विधिवेत्ताओं का विचार है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल इस शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं, लेकिन डॉ० अम्बेडकर ने इस विचार को 'खतरनाक सिद्धान्त' (Dangerous doctrine) बतलाया और स्पष्ट शब्दों में यह कहा कि संविधान द्वारा इस विचार को मान्यता प्रदान नहीं की गयी है। चूंकि राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल संवैधानिक प्रधान हैं, इसलिए व्यवस्थापिकाओं द्वारा पारित 


विधेयक को उन्हें अपनी स्वीकृति देनी होगी। अधिक से अधिक पुनर्विचार के लिए ये किसी विधेयक को फिर से पास लौटा सकते हैं। लेकिन दूसरी बार व्यवस्थापिका जिस रूप में उस विधेयक को पारित कर दे उस


रुप . विधायिका के में उसे उन्हें स्वीकृति देनी ही होगी। अन्यथा इससे संवैधानिक संकट (Constitutional Crisis) पैदा हो सकता है। संविधान सभा में श्री सन्थानम् ने यह भय प्रकट किया कि इन निर्देशक तत्त्वों के कारण राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री अथवा राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद पैदा हो सकता है। अगर प्रधानमंत्री इन सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है तो उसका परिणाम क्या होगा? जैसा कि पहले कहा गया है कि राष्ट्रपति इस आधार पर किसी भी विधेयक को वीटो कर सकता है कि वह 'शासन के मूलभूत सिद्धान्त' निर्देशक तत्त्वों के प्रतिकूल है। लेकिन संसदीय प्रणाली में जहाँ मंत्रिमंडल उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को अपनाया जाता है, राज्य का संवैधानिक प्रधान साधारणतः इस प्रकार कदम नहीं उठा सकता है। संवैधानिक दृष्टिकोण से यह गलत होगा क्योंकि संसद तथा मन्त्रिपरिषद ही जनता का सच्चा प्रतिनिधि होने का दावा कर सकती हैं, राष्ट्रपति या राज्यपाल नहीं। अभी तक इस प्रकार का विवाद भारतीय संविधान में उत्पन्न नहीं हुआ है।

(vi) साधन का उल्लंघन (Means ignored): 

डॉ० जेनिग्स का कहना है कि “संविधान का यह अध्याय सिर्फ लक्ष्य की चर्चा करता है, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधन की नहीं।”23 यह फेबियन समाजवाद के विचारों को अपनाता है। इस प्रकार भारतीय संविधान राष्ट्रीयकरण के सिद्धान्त का उल्लघंन कर समाजवाद की प्राप्ति के साधन को छोड़ नहीं देता है।

(vii) असंगत तथा असामयिक (Out of place and anarchronistic): 

आलोचकों का कहना है कि ये सिद्धान्त भारत के लिए विशेषकर भविष्य में भारत के लिए, असंगत तथा असामयिक हैं। डॉ० जेनिंग्स का कहना है कि “नीतिनिर्देशक तत्त्व इंग्लैंड की उन्नीसवीं शताब्दी के राजनीतिक अनुभवों पर आश्रित सिद्धान्त हैं। वे बीसवीं शताब्दी के मध्य में भारत के लिए अनुपयुक्त हैं |

कुछ आलोचक इससे भी आगे यह प्रश्न पूछते हैं कि ये तत्त्व इक्कीसवीं शताब्दी में भी भारत के लिए उपयुक्त रहेंगे? संभव है, आधुनिक चमत्कारिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के फलस्वरूप देश का सारा आर्थिक ढाँचा ही बदल जाय और भारत में प्रत्येक वस्तु का बाहुल्य होने से मानव की समस्त भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति भली-भाँति हो सके। ऐसी परिस्थिति में डॉ० जेनिंग्स के अनुसार, “ये सिद्धान्त केवल पुराने ही नहीं पड़ जायेंगे बल्कि वे प्रतिक्रियावादी भी जाएंगे और राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध करेंगे हो

 (viii) निर्देशक तत्त्वों को व्यवहार में लाने से उदासीनता (Carelessness toward implementation of Directive Principles):

 कुछ आलोचकों का कहना है कि निर्देशक सिद्धान्त जनता को मूर्ख बनाने तथा भुलावा देने के लिए काँग्रेस दल द्वारा अपनाया गया एक हथकंडा है। वस्तुतः सत्तारूढ़ दल इन्हें लागू करने की ओर से उदासीन रहा है। 31 अगस्त, 1958 को लोक सभा में एक साम्यवादी सदस्य तुषार चटर्जी ने यह जाँच करने के लिए एक आयोग की नियुक्ति की माँग की इन सिद्धान्तों को कहाँ तक लागू किया गया है। उन्होंने यह शिकायत पेश की कि "आम जनता ब्रिटिश युग में फैली दशाओं तथा वर्तमानकालीन दशाओं में कोई अंतर नहीं पाती है। खाद्यान्न, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी समस्याएँ अब भी हल नहीं हो सकी हैं तथा साधारण जनता का जीवन और कठिन हो गया है। वे कुछ नहीं बल्कि यही महसूस करती हैं कि संविधान की घोषणाएँ निर्देश नहीं अपितु सजावट की सामग्री है।"

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